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Friday, 10 July 2020 20:05

Fourier Transform(06) | PG sem 04

 
 
 
 
उत्साह 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
 
दुख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद वर्ग में उत्साह का है। भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दुःखी और कभी कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान् भी होते हैं। उत्साह में हम आनेवाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म सुखकीउमंग से अवश्य प्रयत्न वां होते हैं। उत्साह में कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता के साथ साथ कर्म में प्रवृत्त होने के आनंद का योग रहता है। साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है। कर्म सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं।
 
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्सव के अंतर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किए हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्ध वीरता है, जिसमें आयात, पीड़ा क्या, मृत्यु तक की परवा नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का तक की परवा नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से पड़ता चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिए। बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं। इसी प्रकार चुपचाप, बिना हाथ पैर हिलाए, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना धीरता कही जाएगी। ऐसे साहस और धीरता को उत्साह के अंतर्गत तभी ले सकते हैं जब कि साहसी या धीर उस काम को आनंद के साथ करता चला जाए, जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते हैं। सारांश यह कि पूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा में ही उत्साह का दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं। धाति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचार होता है।
 
जानवर में अर्थ त्याग का साहस अर्थात् उसके कारण होनेवाले कष्ट या कठिनता को सहने की क्षमता अंतर्हित रहती है। दानवीरता तभी कही जाएगी जब दान के कर्ण दानी को अपने जीवन निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनता दिखाई देगी। इसी कष्ट या कठिनता 
की मात्रा या संभावना जितनी ही अधिक होगी, दानवीरता उतनी ही ऊँची समझी जाएगी। पर इस अर्थ त्याग के साहस के साथ ही जब तक पूर्ण तत्परता और आनंद के चिद्द न दिखाई पड़ेंगे तब तक उत्साह का स्वरूप न खड़ा होगा।
 
युद्ध के अतिरिक्त संसार में और भी ऐसे विकट काम होते हैं जिनमें घोर शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और प्राण हानि तक की संभावना रहती है। अनुसंधान के लिए तुषार मंडित अभ्रभेदी अगम्य पर्वतों की चढ़ाई, धारुव देश या सहारा के रेगिस्तान का सफर, क्रूर, बर्बर जातियों के बीच अज्ञात घोर जंगलों में प्रवेश इत्यादि भी पूरी वीरता और पराक्रम के कर्म हैं। इनमें जिस आनंदपूर्ण तत्परता के साथ लोग प्रवृत्त हुए हैं वह भी उत्साह ही है।
 
मनुष्य शारीरिक कष्ट से ही पीछे हटनेवाला प्राणी नहीं है। मनसिक क्लेश की संभावना से भी बहुत से कर्मों की ओर प्रवृत्त होने का साहस उसे नहीं होता। जिन बातों से समाज के बीच उपहास, निंदा, अपमान इत्यादि का भय रहता है, उन्हें अच्छी और कल्याणकारी समझते हुए भी बहुत से लोग उनसे दूर रहते हैं। प्रत्यक्ष हानि देखते हुए भी कुछ प्रथाओं का अनुसरण बड़े बड़े समझदार तक इसलिए करते चलते हैं कि उनके त्याग से वे बुरे कहे जाएँगे, लोगों में उनका वैसा आदर सम्मान न रह जाएँगे, लोगों में उनका वैसा आदर सम्मान न रह जाएगा। उसके लिए मन ग्लानि का कष्ट सब शारीरिक क्लेशों से बढ़कर होता है। जो लोग मन अपमान का कुछ भी ध्यान न करके, निंदा स्तुति की कुछ भी परवा न करके किसी प्रचलित प्रथा के विरुद्धा पूर्ण तत्परता और प्रसन्नता के साथ कार्य करते जाते हैं वे एक ओर तो उत्साही और वीर कहलाते हैं दूसरी ओर भारी बेहया।
 
किसी शुभ परिणाम पर दृष्टि रखकर निंदा स्तुति, मन अपमान आदि की कुछ, परवा न करके प्रचलित प्रथाओं का उल्लंघन करनेवाले वीर या उत्साही कहलाते हैं, यह देखकर बहुत से लोग केवल इस विरुद के लोभ में ही अपनी उछलकूद दिखाया करते हैं। वे केवल उत्साही या साहसी कहे जाने के लिए ही चली आती हुई प्रथाओं को तोड़ने की धुम मचाया करते हैं। शुभ या अशुभ परिणाम से उनसे कोई मतलब नहीं, उनकी ओर उनका ध्यान लेशमात्र नहीं रहता। जिस पक्ष के बीच की सुख्याति का वे अधिक महत्तव समझते हैं उसकी वाहवाही से उत्पन्न आनंद की चाह में वे दूसरे पक्ष के बीच की निंदा या अपमान की कुछ परवा नहीं करते। ऐसे ओछे लोगों के साहस या उत्साह की अपेक्षा उन लोगों का उत्साह या
 
साहस भाव की दृष्टि से कहीं अधिक मूल्यवान है जो किसी प्राचीन प्रथा की चाहे वह वास्तव में हानिकारिणी ही हो-उपयोगिता का सच्चा विश्वास रखते हुए प्रथा नोट नेताओं की निंदा गिलास वामन याटि सटा करनेतोड़नेवालों की निंदा, उपवास, अपमान आदि सहा करते हैं।
 
समाज सुधार के वर्तमन आंदोलनों के बीच जिस प्रकार सच्ची अनुभूति से प्रेरित उच्चाशय और गंभीर पुरुष पाए जाते हैं, उसी प्रकार कुछ मनोवृत्तियों द्वारा प्रेरित साहसी और दयावान भी बहुत मिलते हैं। मैंने कई छिछोरों और लंपटों को विधवाओं की दशा पर दया दिखाते हुए उनके पापाचार के लंबे चौड़े दास्तान हर दम सुनते सुनाते पाया है। ऐसे लोग वास्तव में काम कला के रूप में ऐसे वृत्तांतों का तन्मयता के साथ करण और श्रवण करते हैं। इस ढाँचे के लोगों से सुधार के कार्य में कुछ सहायता पहुँचाने के स्थान पर बाधा पहुंचाने की ही संभावना रहती है। सुधार के नाम पर साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे लोग गंदगी फैलाते पाए जातेहैं।
 
उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है। किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है। वहां उत्साह जो कर्तव्या कर्मों के प्रति इतना सुंदर दिखाई पड़ता है, अकर्तव्या कर्मों की ओर होने पर वैसा श्लाघ्य नहीं प्रतीत होता। आत्मरक्षा, पररक्षा, देशरक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग दिखाई देती है उसके सौंदर्य को परपीड़न, डकैती आदि कर्मों का साहस कभी नहीं पहुँच सकता। यह बात होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या
पहुँच सकता। यह बात होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या साहस की प्रशंसा संसार में थोड़ी बहुत होती ही है। अत्याचारियों या डाकुओं के शौर्य और साहस की कथाएँ भी लोग तारीफ करते हुए सुनते हैं।
 
अब तक उत्साह का प्रधान रूप ही हमारे सामने रहा, जिसमें साहस का पूरा योग रहता है। पर कर्म मात्र के संपादन में जो तत्परतापूर्ण आनंद देखा जाता है वह उत्साह ही कहा जाता है। सब कार्यों में साहस उपेक्षित नहीं होता, पर थोड़ा बहुत आराम विश्राम, सुबीते आदि का त्याग सबको करना पड़ता है, और कुछ नहीं तो उठकर बैठना, खड़ा होना या दस पाँच कदम चलना ही पड़ता है। जब तक आनंद का लगाव किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता तब तक उसे 'उत्साह' की संज्ञा प्राप्त नहीं होती। यदि किसी प्रिय मित्र के आने का समाचार पाकर हम चुपचाप ज्यों के ज्यों आनंदित होकर बैठे रह जाएँ या थोड़ा हँस भी दें तो यह हमारा उत्साह नहीं कहा जाएगा। हमारा उत्साह तभी कहा जाएगा जब हम अपने मित्र का आगमन सुनते ही उठ खड़े होंगे। उससे मिलने के लिए दौड़ पड़ेंगे और उसके ठहरने आदि के प्रबंध में प्रसन्न मुख इधर उधर आते जाते दिखाई देंगे। प्रयत्न और कर्म संकल्प उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण हैं।
 
प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी रहता है।
प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी रहता है। कुछ कर्मों में तो बुद्धि की तत्परता और शरीर की तत्परता दोनों बराबर साथ साथ चलती है। उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ पैर चलवाती है, उसी प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है। ऐसे उत्साहवाले वीर को कर्मवीर कहना चाहिए या बुद्धिवीर-यह प्रश्न मुद्राराक्षस नाटक बहुत अच्छी तरह हमारे सामने लाता है। चाणक्य और राक्षस के बीच जो चोटें चली हैं वे नीति की हैं-शस्त्र की नहीं। अत: विचार करने की बात यह है कि उत्साह की अभिव्यक्ति बुद्धि व्यापार के अवसर पर होती है अथवा बुद्धि द्वारा निश्चित उद्योग में तत्पर होने की दशा में। हमारे देखने में तो उद्योग की तत्परता में ही उत्साह की अभिव्यक्ति होती है, अत: कर्मवीर ही कहना ठीक है।
 
बुद्धि वीर के दृष्टांत कभी कभी हमारे पुराने ढंग के शास्त्रार्थों में देखने को मिल जाते हैं। जिस समय किसी भारी शास्त्रार्थी पंडित से भिड़ने के लिए कोई विद्यार्थी आनंद के साथ सभा में आगे आता है, उस समय उसके बुद्धि साहस की प्रशंसा अवश्य होती है। वह जीते या हारे, बुद्धि वीर समझा ही जाता है। इस जमाने में वीरता का प्रसंग उठाकर वाग्वीर का उल्लेख यदि न हो तो बात अधूरी ही समझी जाएगी। ये वाग्वीर आजकल बड़ी बड़ी सभाओं के मंचों पर से लेकर स्त्रियों के उठाए हुए पारिवारिक प्रपंचों तक में पाए जाते हैं और काफी टाटाट में।
थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि उत्साह में ध्यान किस पर रहता है। कर्म पर, उसके फल पर अथवा व्यक्ति या वस्तु पर? हमारे विचार में उत्साही वीर का ध्यान आदि से अंत तक पूरी कर्म ऋखला पर से होता हुआ उसकी सफलतारूपी समाप्ति तक फैला रहता है। इसी ध्यान से जो आनंद की तरंगें उठती हैं वे ही सारे प्रयत्न को आनंदमय कर देती हैं। युद्ध वीर में विजेतव्य को आलंबन कहा गया है। उसका अभिप्राय यही है कि विजेतव्य कर्मप्रेरक के रूप में वीर के ध्यान में स्थिर रहता है, वह कर्मस्वरूप का भी निर्धारण करता है। पर आनंद और साहस के मिश्रित भाव का सीधा लगाव उसके साथ नहीं रहता। सच पूछिए तो वीर के उत्साह का विषय विजय विधायक कर्म या युद्ध ही रहता है। दानवीर और धर्मवीर पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। दान दयावश, श्रद्धावश या कीर्ति लोभवश दिया जाता है। यदि श्रद्धावश दान दिया जा रहा है तो दानपात्र वास्तव में श्रद्धा का और यदि दयावश दिया जा रहा है तो पीड़ित यथार्थ में दया का विषय या आलंबन ठहरता है। अत: उस श्रद्धा या दया की प्रेरणा से जिस कठिन या दुस्साधय कर्मकी प्रवृत्ति होती है उसी की ओर उत्साही का साहसपूर्ण आनंद उन्मुख कहा जा सकताहै। अभी और रसों में आलंबन का स्वरूप जैसा निर्दिष्ट रहता है वैसा वीर रस में नहीं। बात यह है कि उत्साह एक यौगिक भाव है जिसमें साहस और आनंद का मेल रहताहै।
 
जिस व्यक्ति या वस्तु पर प्रभाव डालने के लिए वीरता दिखाई जाती है उसकी ओर उन्मुख कर्म होता है और कर्म की ओर उन्मुख उत्साह नामक भाव होता है। सारांश यह है कि किसी व्यक्ति या वस्तु के साथ उत्साह का सीधा लगाव नहीं होता। समुद्र लाँघने के लिए जिस उत्साह के साथ हनुमान उठे हैं उसका कारण समुद्र नहीं लांघने का विकट कर्म है। कर्म भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है, वस्तु या व्यक्ति की भावना नहीं।
 
किसी कर्म के संबंध में जहाँ आनंदपूर्ण तत्परता दिखाई पड़ी कि हम उसे उत्साह कह देते हैं। कर्म के अनुष्ठान में जो आनंद होता है उसका विधान तीन रूपों में दिखाई पड़ता है
 
1. कर्म भावना से उत्पन्न,
 
2. फल भावना से उत्पन्न, और
 
3. आगंतुक, अर्थात् विषयांतर से प्राप्त।
 
इसमें कर्म भावना प्रसूत आनंद को ही सच्चे वीरों का आनंद समझना चाहिए, जिसमें साहस का योग प्राय:
 
बहुत अधिक रहा करता है। सच्चा वीर जिस समय मैदान में उतरता है उसी समय उसमें उतना आनंद भरा मैदान में उतरता है उसी समय उसमें उतना आनंद भरा रहता है जितना औरों को विजय या सफलता प्राप्त करने पर होता है। उसके सामने कर्म और फल के बीच या तो कोई अंतर होता ही नहीं या बहुत सिमटा हुआ होता है। इसी से कर्म की ओर वह उसी झोंक से लपकता है जिस झोंक से साधारण लोग फल की ओर लपका करते हैं। इसी कर्मप्रवर्तक आनंद की मात्रा के हिसाब से शौर्य और साहस का स्फुरण होता है।
 
फल की भावना से उत्पन्न आनंद भी साधक कर्मों की ओर हर्ष और तत्परता के साथ प्रवृत्त करता है। पर फल का लोभ जहाँ प्रधान रहता है वहाँ कर्म विषयक आनंद उसी फल की भावना की तीव्रता और मंदता पर अवलंबित रहता है। उद्योग के प्रभाव के बीच जब जब फल की भावना मंद पड़ती है-उसकी आशा कुछ धुंधली पड़ जाती है, तब तब आनंद की उमंग गिर जाती है और उसी के साथ उद्योग में भी शिथिलता आ जाती है। पर कर्म भावना प्रधान उत्साह बराबर एकरस रहता है। फलासक्त उत्साही असफल होने पर खिन्न और दुःखी होता है, पर कर्मासक्त उत्साही केवल कर्म अनुष्ठान के पूर्व की अवस्था में हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि कर्म भावना प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है। फल भावना प्रधान उत्साह तो लोभ ही का एक प्रच्छन्न रूप है।
 
उत्साह वास्तव में कर्म और फल की मिली जुली अनुभूति है जिसकी प्रेरणा से तत्परता आती है। यदि फल दूर ही पर दिखाई पड़े, उसकी भावना के साथ ही उसका लेशमात्र भी कर्म या प्रयत्न के साथ लगाव न मालूम हो तो हमारे हाथ पाँव कभी न उठें और उस फल के साथ हमारा संयोग ही न हो। इससे कर्म ऋंखला की पहली कड़ी पकड़ते ही फल के आनंद की भी कुछ अनुभूति होने लगती है। यदि हमें यह निश्चय हो जाए की अमुक स्थान पर जाने से हमें किसी प्रिय व्यक्ति का दर्शन होगा तो उस निश्चय के प्रभाव से हमारी यात्रा भी अत्यंत प्रिय हो जाएगी। हम चल पड़ेंगे और हमारे अंगों की प्रत्येक गति में प्रफुल्लता दिखाई देगी। यही प्रफुल्लता कठिन से कठिन कर्मों के साधन में भी देखी जाती है। वे कर्म भी प्रिय हो जाते हैं और अच्छे लगने लगते हैं। जब तक पहुँचनेवाला कर्म पथ अच्छा न लगेगा तब तक केवल फल का अच्छा लगना कुछ नहीं। फल की इच्छा मात्र हृदय में रखकर जो प्रयत्न किया जाएगा वह अभावमय और आनंदशून्य होने के कारण निर्जीव सा होगा।
 
कर्मा रुचि शून्य प्रयत्न में कभी कभी इतनी उतावली और आकुलता होती है कि मनुष्य साधना के उत्तारोत्तार क्रम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच ही में चूक जाता है। मन लीजिए कि एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर विचरते गद्य कोश
 
है। मन लीजिए कि एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर विचरते हुए किसी व्यक्ति को नीचे बहुत दूर तक गई हुई सीढ़ियाँ दिखाई दीं और यह मालूम हुआ कि नीचे उतरने पर सोने का ढेर मिलेगा। यदि उसमें इतनी सजीवता है कि उक्त सूचना के साथ ही वह उस स्वर्ण राशि के साथ एक प्रकार के मनसिक संयोग का अनुभव करने लगा तथा उसका चित्त प्रफुल्ल और अंग सचेष्ट हो गए, उसे एक एक सीढ़ी स्वर्णमयी दिखाई देगी, एक एक सीढ़ी उतरने में उसे आनंद मिलता जाएगा, एक एक क्षण उसे सुख से बीतता हुआ जान पड़ेगा और वह प्रसन्नता के साथ स्वर्ण राशि तक पहुँचेगा। इस प्रकार उसके प्रयत्नकाल को भी फल प्राप्ति काल के अंतर्गतही समझना चाहिए। इसके विरुद्धा यदि उसका हृदय दुर्बल होगा और उसमें इच्छामात्र ही उत्पन्न होकर रह जाएगी; तो अभाव के बोध के कारण उसके चित्त में यही होगा कि कैसे झट से नीचे पहुँच जाएँ। उसे एक एक सीढ़ी उतरना बुरा मालूम होगा और आश्चर्य नहीं कि वह या तो हारकर बैठ जाए या लड़खड़ाकर मुँह के बल गिर पड़े।
 
फल की विशेष आसक्ति से कर्म के लाघव की वासना उत्पन्न होती है; चित्त में यही आता है कि कर्म बहुत कम या बहुत सरल करना पड़े और फल बहुत सा मिल जाए। श्रीकृष्ण ने कर्म मार्ग से फलासक्ति की प्रबलता हटाने का बहुत ही स्पष्ट उपदेश दिया; पर उनके समझाने पर शिवा नगीना गाना मोगा नो नो भी भारतवासी इस वासना से ग्रस्त होकर कर्म से तो उदास हो बैठे और फल के इतने पीछे पड़े कि गरमी में ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगे; चार आने रोज का अनुष्ठान कराके व्यापार में लाभ, शत्रु पर विजय, रोग से मुक्ति, धान धन्य की वृद्धि तथा और भी न जाने क्या क्या चाहने लगे। आसक्ति प्रस्तुत या उपस्थित वस्तु में ही ठीक कही जा सकती है। कर्म सामने उपस्थित रहता है। इससे आसक्ति उसी में चाहिए। फल दूर रहता है. इससे उसकी ओर कर्म का लक्ष्य काफी है। जिस आनंद से कर्म की उत्तेलजना होती है और जो आनंद कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का नाम उत्साह है।
 
कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न भी पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करनेवाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी; क्योंकि एक तो कर्म काल में उसका जो जीवन बीता वह संतोष या आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। फल पहले से कोई बना बनाया पदार्थ नहीं होता। अनुकूल प्रयत्न कर्म के अनुसार, उसके एक एक अंग की योजना होती है। बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ही प्रयत्न है। किसी मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है। वह वैदों के यहाँ से जब तक औषधि ला लाकर रोगी को देता जाता है और इधर उधर दौड़धूप करता जाता है तब तक उसके चित्त में जो संतोष रहता है-प्रत्येक नए उपचार के साथ जो आनंद का उन्मेष होता रहता है-यह उसे कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा रहता। प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीता, अप्रयत्न की दशा में उतना ही अंश केवल शोक और दुख में बँटता। इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस कठोर दुख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच सोचकर होता कि मैंने पूरा प्रयत्न
 
नहीं किया।
 
कर्म में आनंद अनुभव करनेवालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्तव्य को वे कर्म ही फलस्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और तुष्टि होती है, वही लोकोपकारी कर्मवीर का सच्चा सुख है उसके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न हो जाए: बल्कि उसी समय से थोड़ा थोड़ा करके मिलने लगता है, जब से वह कर्म की और हाथ बढ़ाता कभी कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनंद के कारण एक ऐसी स्फूर्ति होती है जो बहुत से कार्यों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर करती है। इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे काम बड़े उत्साह से किए जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता को भी लोग उत्साह ही कहते हैं। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सुख प्राप्ति की आशा या निश्चय से उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और दूसरे व्यापारों के साथ संलग्न होकर, उत्साह के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग में लगे हैं जिससे आगे चलकर हमें बहुत लाभ या सुख की आशा है तो हम उस उद्योग को तो उत्साह के साथ करते ही हैं, अन्य कार्यों में भी प्राय: अपना उत्साह दिखा देते हैं।
 
यह बात उत्साह में नहीं, अन्य मनोविकारों में बराबर पाई जाती है। यदि हम किसी बात पर क्रुद्धा बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात सीधी तरह भी पूछता है तो भी हम उसपर झुँझला उठते हैं। इस झुंझलाहट का न तो कोई निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की स्थिति व्याघात को रोकने
 
को किया है तो
 
की रक्षा का प्रश्न है। टस ट्यंटलाइट यह बात उत्साह में नहीं, अन्य मनोविकारों में बराबर पाई जाती है। यदि हम किसी बात पर क्रुद्धा बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात सीधी तरह भी पूछता है तो भी हम उसपर झुँझला उठते हैं। इस झुंझलाहट का न तो कोई निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की स्थिति व्याघात को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है। इस झुंझलाहट द्वारा हम यह प्रकट करते हैं कि हम क्रोध में हैं और क्रोध ही में रहना चाहते हैं। क्रोध को बनाए रखने के लिए हम उन बातों से भी क्रोध ही संचित करते हैं जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव प्राप्त करते। इसी प्रकार यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साह रहता है तो हम अन्य विषयों में भी अपना उत्साह दिखा देते हैं। यदि हमारा मन बढ़ा हुआ रहता है तो हम बहुत से काम प्रसन्नतापूर्वक करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसी बात का विचार करके सलाम साधक लोग हाकिमों से मुलाकात करने के पहले अर्दलियों से उनका मिजाज पूछ लिया करते हैं।
 
[चिन्तामणि, भाग-1]
 
 
वापसी कहानी
लेखिका उषा प्रियंवदा
 
आधुनिक हिंदी साहित्य में उषा प्रियंवदा जी का विशिष्ट स्थान है। नई कहानी में अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के कारण उषा जी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित रहीं। अपनी रचनाशीलता के कारण ही वे आज भी हिंदी कहानी की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बनी हुई हैं। उषा प्रियंवदा की कहानियों में आज के व्यक्ति की दशा और दिशा का जीवन्त चित्रण देखने को मिलता है जो पाठकों को सहज रुप में अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। हिंदी कहानियों पर होने वाली कोई भी चर्चा इनकी कहानियों की चर्चा के बिना लगभग अधूरी है।
 
नई कहानी के बाद हिन्दी कहानी की विषय – वस्तु में जो यथार्थवाद दिखाई देता है, उषाजी की कहानी उसी का प्रतिनिधित्त्व करती है। ‘वापसी’ कहानी में परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व है। आधुनिकता के इस दौर में दो पीढ़ियों के बीच हो रहे बदलाव व टकराव का लेखा जोखा प्रस्तुत है। कहानी में सेवानिवृत्त हो कर घर लौटे गजाधर बाबू को अपने ही घर में पराया कर दिए जाने के कटु अनुभवों को चित्रित किया गया है।
 
‘जिन्दगी और गुलाब के फूल’, ‘कितना बड़ा झूठ’, ‘कोई एक दूसरा’,’मेरी प्रिय कहानियाँ’ उषा जी के महत्त्वपूर्ण कहानी संग्रह हैं तथा ‘पचपन खम्बे लाल दीवारें’, ‘रुकोगी नहीं राधिका’,’शेष यात्रा’,’अंतर्वंशी’ उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।
 
कथावस्तु :- स्टेशन मास्टर की नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद गजाधर बाबू बड़े उत्साह से अपने परिवार के साथ रहने की इच्छा लिए घर लौटते हैं। रेलवे क्वार्टर में रह कर नौकरी करते हुए गजाधर बाबू को पैंतीस सालों तक परिवार से दूर रहना पड़ा था ताकि उनका परिवार शहर में सुख- सुविधाओं के बीच रह सके। शहर में रहने से उन्हें किसी प्रकार की कमी का बोध न होने पाए। नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने सोचा कि अब जिंदगी के बचे दिन अपने परिजनों के साथ प्यार और आराम से बिताएंगे। एक सुंदर और सुखद घर का सपना संजोए वे घर लौटे तो उन्होंने पाया कि परिवार के लोग अपने - अपने ढंग से जी रहे हैं। बेटा घर का मालिक बना हुआ है। बेटी और बहू घर का कोई काम नहीं करतीं और यदि उन्हें रसोई बनाने को कहा जाए तो वे जानबूझ कर कर आवश्यकता से अधिक राशन खर्च कर देती हैं इसलिए उनकी पत्नी ने र्षक और रसोई की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है। घर के अन्य कामों के लिए नौकर रखा गया है, जिसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है। जिस परिवार के लिए सालों छोटे - मोटे स्टेशन के क्वाटर में अकेले रहकर उन्होंने अपना जीवन गुजार दिया उसी परिवार के किसी सदस्य के मन में उनके प्रति कोई लगाव नहीं है। बच्चों के लिए वे केवल पैसा कमाने के साधन मात्र हैं। गजाधर बाबू की उपस्थिति व किसी कार्य में उनका हस्तक्षेप बेटे बहू को स्वीकार नहीं हो पाती। उनके होने से उन्हें अपने मन से जीने की स्वतंत्रता नहीं मिल पाती। उनकी अपनी बेटी भी एक छोटी सी डांट पर मुँह फुला देती है तथा उसने कटकर रहने लगती है। उनकी पत्नी उन्हें समझने की बजाय उलटे उन्हीं को बच्चों के फैसलों के बीच में न पड़ने की सलाह देती है।
 
 
परिवार में गजाधर बाबू की वापसी आधुनिक परिवार में टूटते पारिवारिक संबंधों के साथ परिवार के बूढ़े व्यक्ति की लाचारी की झांकी प्रस्तुत करती है। गजाधर बाबू अपने बच्चों के साथ उनके मनोविनोद में वह शरीक होना चाहते हैं लेकिन बच्चे उन्हें देखते ही गंभीर हो जाते हैं। घर के सभी सदस्य गजाधर बाबू के फैसले का निरादर कर देते हैं। कुछ समय बाद घर में उनकी उपस्थिति बच्चो को अखरने लगती है। घरेलू मामले में उनके किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को उनकी पत्नी तथा बच्चे स्वीकार नहीं करते उलटे उनके फैसले का विरोध करने लगते हैं। उनके कारण घर में दोस्तों के बीच चलने वाली चाय पार्टी में अवरोध न हो इसलिए बैठक से उनकी चारपाई हटाकर माँ के कमरे में लगा दी जाती है। उनके लिए सबसे दु:खद बात यह होती है कि जिस पत्नी का स्नेह और सौहार्द नौकरी के समय निरंतर उनके स्मरण में रहा करता था, अब वही पत्नी घर की रसोई सम्हालने में ही संतोष का अनुभव करती है तथा पति से अधिक बच्चों के बीच रहने में अपने जीवन की सार्थकता समझती है। कुलमिलाकर गजाधर बाबू अपने परिजनों के बीच पराया हो जाना बर्दाश नहीं कर पाते। अपनी पत्नी और बच्चों से निराश हो कर पुन; चीनी मील को नयी नौकरी खोज कर घर से चले जाने का फैसला ले लेते हैं।
 
निष्कर्ष :- ‘वापसी’ आधुनिक युग के वास्तविक यथार्थ को प्रस्तुत करती है कहानी यह दर्शाती है कि आधुनिक पीढ़ी के लिए परिवार में पुराने मूल्यों की तरह पिता का भी कोई स्थान नहीं रह गया है। वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त पात्र मात्र बन गया है। पत्नी भी जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी मांग में सिंदूर डालने की अधिकारिणी है तथा समाज में प्रतिष्ठा पाती है। उसके सामने वह दो वक्त भोजन की थाली रख देने से ही अपने सारे कर्तव्यों से छुट्टी पा जाती है। गजाधर बाबू की परेशानी यह है कि वह जीवन यात्रा के अतीत के पन्नों को पुनः वैसे ही जीना चाहते हैं किन्तु अब ये संभव नहीं है। क्योंकि अब उनके लिए घरौर परिवार में कोई जगह नहीं है। इसप्रकार यह कहानी वर्तमान युग मे बिखरते मध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी तथा मूल्यों के विघटन की समस्या पर प्रकाश डालती है।
 
प्रश्न
१) ‘वापसी’ कहानी के माध्यम से गजाधर बाबू का चरित्र – चित्रण कीजिये।
 
२) ‘वापसी’ कहानी के माध्यम से मध्यमवर्गीय परिवार की विवशताओं पर प्रकाश डालिए।
 
 
पुरस्कार के प्रश्नोत्तर
 
जयशंकर प्रसाद का परिचय दीजिये..
जन्म प्रसाद जी का जन्म माघ शुक्ल 10, संवत्‌ 1946 वि० (तदनुसार 30जनवरी 1889ई० दिन-गुरुवार) को काशी के सरायगोवर्धन में हुआ।
जीवन परिचय 
जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। 
 
 
=> प्रसाद की आरंभिक कहानियों का संकलन कौन सी है??
उत्तर- सन 1912 में ‘ छाया ‘ नाम से प्रकाशित हुआ था। उनकी अंतिम कहानी संग्रह ‘ कौन सी है??
 इंद्रजाल ‘ उनके निधन के 1 वर्ष पहले सन 1936 में प्रकाशित हुआ था।
 
 
 
 
=पुरस्कार कहानी की मूल चेतना क्या है??
=> ‘पुरस्कार’ उनकी ऐसी  रचना है जिसमें प्रेम और मुक्ति चेतना का विकास लक्षित किया जा सकता है।
 
पुरस्कार की कथावस्तु बताईये
 
=> राजा द्वारा मधुलिका की कृषि भूमि अधिग्रहित कर लेने पर भी वह पुरस्कार नहीं लेती क्योंकि वह उसकी पैतृक संपत्ति थी जिसे बेचना वह अपराध समझती थी।
 
=> स्वर्ण मुद्राओं को अस्वीकार और जीवन यापन के लिए कठिन श्रम उसकी देशभक्ति और ईमानदारी का प्रमाण है।
 
=> राष्ट्रीय प्रेम एवं मुक्ति चेतना का एक अन्यतम उदाहरण और है जहां कौशल पर कब्जे की योजना बनाते अरुण का रहस्य व राज्य सैनिकों के सामने उद्घाटित करती है , और पुरस्कार स्वरूप खुद को प्राणदंड के लिए प्रस्तुत कर देती है। क्योंकि राजा ने अरुण को प्राण दंड देने का आदेश दिया था और मधुलिका अरुण से प्रेम करती थी।
 
मधुलिका का अंतर्द्वंद्व क्या था ?=> 
 मधुलिका को अंतर्द्वंद से गुजरना पड़ा कि एक तरफ मातृभूमि की रक्षा का सवाल और दूसरी और प्रेम का लहराता समुद्र।
 
मधुलिका ने किसे चुना??मधुलिका ने बुद्धिमानी का परिचय दिया उसे देश और प्रेम दोनों के प्रति ईमानदारी पर संदेह नहीं किया जा सकता।
 
मधुलिका के प्रेम की पराकाष्ठा क्या थी? 
=> पुरस्कार के रुप में प्राणदंड की मांग और अरुण के साथ खड़ा हो जाना प्रेम की पराकाष्ठा का प्रमाण है।
 
 
प्रसाद ने इतिहास पुराण और संस्कृति का उपयोग अपनी कहानियों में किस उद्देश्य से किया है?
=> प्रसाद ने इतिहास पुराण और संस्कृति का उपयोग अपनी युगीन आवश्यकताओं के संदर्भ में जनता की इच्छा आकांक्षाओं को स्वर देने के लिए ही किया है।
 
कहानी की मूल संवेदना बताईये।
=> मूल संवेदना उस क्षेत्र से मिलती है जहां कर्तव्य एवं निष्ठा का निर्वाह किया गया हो।
Sandhya Sinha: पुरुस्कार कहानी का सारांश
पुरुस्कार कहानी हिंदी के प्रसिद्ध लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ द्वारा लिखित कहानी है।
 
कहानी की मुख्य पात्र एक तरुण आयु की कन्या ‘मधुलिका’ है। जो कोशल राज्य के ही एक वीर सैनिक सिहंमित्र की पुत्री है। सिंहमित्र ने पूर्व समय में अपनी वीरता से कोशल राज्य के सम्मान की रक्षा की थी।
 
कहानी का आरंभ उस दृश्य के साथ होता है जब कोशल नरेश राज्य की परंपरा के निर्वाह के लिये हर वर्ष इन्द्र की पूजा होती थी। ये एक कृषि उत्सव था जिसमें राजा अपने राज्य के किसी किसान की भूमि का अधिग्रहण कर उसमें एक दिन का कृषि कार्य करता  और उत्सव के अन्य आयोजन संपन्न करता था। इस बार मधूलिका का खेत राजा ने अधिग्रहण किया था। राजा पुरुस्कार स्वरूप मधुलिका बहुत बड़ी धनराशि देनी चाही वो पर वो पुरुस्कार लेने से मना कर देती है, और कहती है कि वो अपने खेत का सौदा नही करेगी। राजा के कहने पर और अन्य लोगों के समझाने पर भी वो नही मानती। इस उत्सव में आसपास से राज्यों से भी राजा-राजकुमार आदि अतिथि रूप में आते थे। मगध का राजकुमार अरुण भी वहाँ आया हुआ था और वो ये घटना देख रहा था।
 
उत्सव संपन्न हो जाता है, मधुलिका पुरुस्कार नही लेती है, राजकुमार अरुण ये मधुलिका से प्रभावित होता है। वो रात में मधुलिका की कुटिया में उससे मिलने आता है, उससे प्रणय निवेदन करता है। वो कहता है कि वो उसकी सहचरी बन जाये। वो कोशल नरेश से कहकर उसका खेत वापस दिलवा देगा। पर मधुलिका उसके आग्रह को ठुकरा देती है, वो वापस लौट जाता है।
 
मधुलिका फिर अपने खेत नही जाती और दूसरे खेतों में काम करके किसी तरह अपना जीवन-यापन करती है। यूं ही तीन वर्ष बीत जाते हैं। अब मधुलिका अपनी आर्थिक विपन्नता से व्यथित हो चुकी है, उसे राजकुमार अरुण की भी याद आती है। एक रात संयोग से राजकुमार स्वयं उसकी कुटिया में शरणार्थी के रूप में आ जाता है। वो बताता है कि उसने अपने राज्य में विद्रोह कर दिया है और अपने राज्य से निष्काषित कर दिया गया है। मधुलिका भी उससे प्रेम कर बैठती है और उसकी बातों में आ जाती है। अरुण मधुलिका को इस बात के लिये राजी कर लेता है कि वो कोशल नरेश से अपने खेत के बदले में किले के पास वाली भूमि मांग ले। चूंकि वो भूमि किले के पास है अतः वहाँ से अरुण अपने साथी सैनिकों के साथ किले पर आसानी से हमला कर सकता है। वो मधुलिका को लोभ देता है कि वो कोशल पर कब्जा कर अपना शासन स्थापित कर लेगा और उसे अपनी रानी बनायेगा। मधुलिका भी प्रेम में थी इसलिये उसे भी रानी बनने का लोभ हो जाता है। वो कोशल नरेश के पास जाकर किले के नाले के पास वाली भूमि मांग लेती है। अरुण भूमि पाकर खुश होता है वो कोशल पर छुपकर आक्रमण करने की तैयारी करने लगता है।
 
पर मधूलिका का मन अशांत है वो सोचती है कि वो क्या करने जा रही है। कहाँ उसने अपनी ईमानदारी और सम्मान की खातिर अपने खेत के बदले राजा से पुरुस्कार तक नही लिया, और अब वो राज्य के एक शत्रु को पनाह देने के लिए राजा की दी भूमि का उपयोग कर रही है। उसके पिता ने राज्य की रक्षा के लिये अपने प्राण दे दिये और वो राज्य के साथ विश्वासघात कर रही है। उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कारती है और वो राजा को सारी बाते बता देती है कि पड़ोसी राज्य मगध का विद्रोही राजकुमार अरुण कोशल पर आ्क्रमण करने की योजना बना रहा है। राजा शीघ्र ही अरुण को पकड़ लेता है। उसे मृत्युदंड दिया जाता है। राजा मधुलिका की प्रशंसा करते हुये उसे पुरुस्कार मांगने को कहता है तो मधुलिका स्वयं के लिये भी मृत्युदंड का मांग करते हुये अरुण के पास खड़ी हो जाती है।
 
 
 
[25/06, 2:35 pm] Sandhya Sinha: कहानी की मूल संवेदना –
 
कर्तव्य एवं निष्ठां -
 
 
सच्चे नागरिक होने के कारण अरुण को पकड़वा देती है किंतु प्रेम के प्रति अपनी निष्ठा भी दिखाती है वह भी पुरस्कार रूप में प्राणदंड की मांग करती है यही कहानी की मूल संवेदना है यहां कर्तव्य एवं निष्ठा का निर्वाह किया गया है।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
पुरस्कार
जयशंकर प्रसाद
 
 
 
आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकने लगा था।-देखने लगा महाराज की सवारी। शैलमाला के अञ्चल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामरधारी शुण्ड उन्नत दिखायी पड़ा। वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा।
 
प्रभात की हेम-किरणों से अनुरञ्जित नन्ही-नन्ही बूँदों का एक झोंका स्वर्ण-मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष-ध्वनि की।
 
रथों, हाथियों और अश्वारोहियों की पंक्ति जम गई। दर्शकों की भीड़ भी कम न थी। गजराज बैठ गया, सीढिय़ों से महाराज उतरे। सौभाग्यवती और कुमारी सुन्दरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल-कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बढ़े।
 
महाराज के मुख पर मधुर मुस्क्यान थी। पुरोहित-वर्ग ने स्वस्त्ययन किया। स्वर्ण-रञ्जित हल की मूठ पकड़ कर महाराज ने जुते हुए सुन्दर पुष्ट बैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारियों ने खीलों और फूलों की वर्षा की
कोशल का यह उत्सव प्रसिद्ध था। एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ता-उस दिन इंद्र-पूजन की धूम-धाम होती; गोठ होती। नगर-निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनन्द मनाते। प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से सम्पन्न होता; दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योग देते।
 
मगध का एक राजकुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था।
 
बीजों का एक बाल लिये कुमारी मधूलिका महाराज के साथ थी। बीज बोते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधूलिका उनके सामने थाल कर देती। यह खेत मधूलिका का था, जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान मधूलिका ही को मिला। वह कुमारी थी। सुन्दरी थी। कौशेयवसन उसके शरीर पर इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था। वह कभी उसे सम्हालती और कभी अपने रूखे अलकों को। कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न थी, वे सब बरौनियों में गुँथे जा रहे थे। सम्मान और लज्जा उसके अधरों पर मन्द मुस्कराहट के साथ सिहर उठते; किन्तु महाराज को बीज देने में उसने शिथिलता नहीं की। सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे-विस्मय से, कुतूहल से। और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधूलिका को। अहा कितना भोला सौन्दर्य! कितनी सरल चितवन!
 
उत्सव का प्रधान कृत्य समाप्त हो गया। महाराज ने मधूलिका के खेत का पुरस्कार दिया, थाल में कुछ स्वर्ण मुद्राएँ। वह राजकीय अनुग्रह था। मधूलिका ने थाली सिर से लगा ली; किन्तु साथ उसमें की स्वर्णमुद्राओं को महाराज पर न्योछावर करके बिखेर दिया। मधूलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे! महाराज की भृकुटी भी जरा चढ़ी ही थी कि मधूलिका ने सविनय कहा-
 
देव! यह मेरे पितृ-पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है; इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामथ्र्य के बाहर है। महाराज के बोलने के पहले ही वृद्ध मन्त्री ने तीखे स्वर से कहा-अबोध! क्या बक रही है? राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कोशल का तो यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारिणी हुई, इस धन से अपने को सुखी बना।
 
राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है, मन्त्रिवर! .... महाराज को भूमि-समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है; किन्तु मूल्य स्वीकार करना असम्भव है।-मधूलिका उत्तेजित हो उठी।
 
महाराज के संकेत करने पर मन्त्री ने कहा-देव! वाराणसी-युद्ध के अन्यतम वीर सिंहमित्र की यह एक-मात्र कन्या है।-महाराज चौंक उठे-सिंहमित्र की कन्या! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधूलिका कन्या है?
 
हाँ, देव! -सविनय मन्त्री ने कहा।
 
इस उत्सव के पराम्परागत नियम क्या हैं, मन्त्रिवर?-महाराज ने पूछा।
 
देव, नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार-स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यन्त अनुग्रहपूर्वक अर्थात् भू-सम्पत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है। उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। वह राजा का खेत कहा जाता है।महाराज को विचार-संघर्ष से विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे। जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गये। किन्तु मधूलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर विशाल मधूक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही।
 
रात्रि का उत्सव अब विश्राम ले रहा था। राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं हुआ-अपने विश्राम-भवन में जागरण कर रहा था। आँखों में नींद न थी। प्राची में जैसी गुलाली खिल रही थी, वह रंग उसकी आँखों में था। सामने देखा तो मुण्डेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाये अँगड़ाई ले रही थी। अरुण उठ खड़ा हुआ। द्वार पर सुसज्जित अश्व था, वह देखते-देखते नगर-तोरण पर जा पहुँचा। रक्षक-गण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे।
 
युवक-कुमार तीर-सा निकल गया। सिन्धुदेश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था। घूमता-घूमता अरुण उसी मधूक-वृक्ष के नीचे पहुँचा, जहाँ मधूलिका अपने हाथ पर सिर धरे हुए खिन्न-निद्रा का सुख ले रही थी।
 
अरुण ने देखा, एक छिन्न माधवीलता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकुलित, भ्रमर निस्पन्द थे। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को देखने लिए, परन्तु कोकिल बोल उठा। जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया-छि:, कुमारी के सोये हुए सौन्दर्य पर दृष्टिपात करनेवाले धृष्ट, तुम कौन? मधूलिका की आँखे खुल पड़ीं। उसने देखा, एक अपरिचित युवक। वह संकोच से उठ बैठी। -भद्रे! तुम्हीं न कल के उत्सव की सञ्चालिका रही हो?
 
उत्सव! हाँ, उत्सव ही तो था।
 
कल उस सम्मान....
 
क्यों आपको कल का स्वप्न सता रहा है? भद्र! आप क्या मुझे इस अवस्था में सन्तुष्ट न रहने देंगे?
 
मेरा हृदय तुम्हारी उस छवि का भक्त बन गया है, देवि!
 
मेरे उस अभिनय का-मेरी विडम्बना का। आह! मनुष्य कितना निर्दय है, अपरिचित! क्षमा करो, जाओ अपने मार्ग।
 
सरलता की देवि! मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ-मेरे हृदय की भावना अवगुण्ठन में रहना नहीं जानती। उसे अपनी....।
 
राजकुमार! मैं कृषक-बालिका हूँ। आप नन्दनबिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीनेवाली। आज मेरी स्नेह की भूमि पर से मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दु:ख से विकल हूँ; मेरा उपहास न करो।
 
मैं कोशल-नरेश से तुम्हारी भूमि तुम्हें दिलवा दूंगा।
 
नहीं, वह कोशल का राष्ट्रीय नियम है। मैं उसे बदलना नहीं चाहती-चाहे उससे मुझे कितना ही दु:ख हो।
 
तब तुम्हारा रहस्य क्या है?
 
यह रहस्य मानव-हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार, नियमों से यदि मानव-हृदय बाध्य होता, तो आज मगध के राजकुमार का हृदय किसी राजकुमारी की ओर न खिंच कर एक कृषक-बालिका का अपमान करने न आता। मधूलिका उठ खड़ी हुई।
 
चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा। किशोर किरणों में उसका रत्नकिरीट चमक उठा। अश्व वेग से चला जा रहा था और मधूलिका निष्ठुर प्रहार करके क्या स्वयं आहत न हुई? उसके हृदय में टीस-सी होने लगी। वह सजल नेत्रों से उड़ती हुई धूल देखने लगी।
 
मधूलिका ने राजा का प्रतिपादन, अनुग्रह नहीं लिया। वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखी खाकर पड़ रहती। मधूक-वृक्ष के नीचे छोटी-सी पर्णकुटीर थी। सूखे डंठलों से उसकी दीवार बनी थी। मधूलिका का वही आश्रय था। कठोर परिश्रम से जो रूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।
दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कान्ति थी। आस-पास के कृषक उसका आदर करते। वह एक आदर्श बालिका थी। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे।
 
शीतकाल की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड़-धूप। मधूलिका का छाजन टपक रहा था! ओढऩे की कमी थी। वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी। मधूलिका अपने अभाव को आज बढ़ाकर सोच रही थी। जीवन से सामञ्जस्य बनाये रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं; परन्तु उनकी आवश्यकता और कल्पना भावना के साथ बढ़ती-घटती रहती है। आज बहुत दिनों पर उसे बीती हुई बात स्मरण हुई। दो, नहीं-नहीं, तीन वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक के नीचे प्रभात में-तरुण राजकुमार ने क्या कहा था?
 
वह अपने हृदय से पूछने लगी-उन चाटुकारी के शब्दों को सुनने के लिए उत्सुक-सी वह पूछने लगी-क्या कहा था? दु:ख-दग्ध हृदय उन स्वप्न-सी बातों को स्मरण रख सकता था? और स्मरण ही होता, तो भी कष्टों की इस काली निशा में वह कहने का साहस करता। हाय री बिडम्बना!
 
आज मधूलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी। दारिद्रय की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया है। मगध की प्रासाद-माला के वैभव का काल्पनिक चित्र-उन सूखे डंठलों के रन्ध्रों से, नभ में-बिजली के आलोक में-नाचता हुआ दिखाई देने लगा। खिलवाड़ी शिशु जैसे श्रावण की सन्ध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है, वैसे ही मधूलिका मन-ही-मन कर रही थी। 'अभी वह निकल गया'। वर्षा ने भीषण रूप धारण किया। गड़गड़ाहट बढ़ने लगी; ओले पड़ने की सम्भावना थी। मधूलिका अपनी जर्जर झोपड़ी के लिए काँप उठी। सहसा बाहर कुछ शब्द हुआ-
 
कौन है यहाँ? पथिक को आश्रय चाहिए।
 
मधूलिका ने डंठलों का कपाट खोल दिया। बिजली चमक उठी। उसने देखा, एक पुरुष घोड़े की डोर पकड़े खड़ा है। सहसा वह चिल्ला उठी-राजकुमार!
 
मधूलिका?-आश्चर्य से युवक ने कहा।
 
एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। मधूलिका अपनी कल्पना को सहसा प्रत्यक्ष देखकर चकित हो गई -इतने दिनों के बाद आज फिर!
 
अरुण ने कहा-कितना समझाया मैंने-परन्तु.....
 
मधूलिका अपनी दयनीय अवस्था पर संकेत करने देना नहीं चाहती थी। उसने कहा-और आज आपकी यह क्या दशा है?
सिर झुकाकर अरुण ने कहा-मैं मगध का विद्रोही निर्वासित कोशल में जीविका खोजने आया हूँ।
 
मधूलिका उस अन्धकार में हँस पड़ी-मगध का विद्रोही राजकुमार का स्वागत करे एक अनाथिनी कृषक-बालिका, यह भी एक विडम्बना है, तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूँ।
 
शीतकाल की निस्तब्ध रजनी, कुहरे से धुली हुई चाँदनी, हाड़ कँपा देनेवाला समीर, तो भी अरुण और मधूलिका दोनों पहाड़ी गह्वर के द्वार पर वट-वृक्ष के नीचे बैठे हुए बातें कर रहे हैं। मधूलिका की वाणी में उत्साह था, किन्तु अरुण जैसे अत्यन्त सावधान होकर बोलता।
 
मधूलिका ने पूछा-जब तुम इतनी विपन्न अवस्था में हो, तो फिर इतने सैनिकों को साथ रखने की क्या आवश्यकता है?
 
मधूलिका! बाहुबल ही तो वीरों की आजीविका है। ये मेरे जीवन-मरण के साथी हैं, भला मैं इन्हें कैसे छोड़ देता? और करता ही क्या?
 
क्यों? हम लोग परिश्रम से कमाते और खाते। अब तो तुम...।
 
भूल न करो, मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ। नये राज्य की स्थापना कर सकता हूँ। निराश क्यों हो जाऊँ?-अरुण के शब्दों में कम्पन था; वह जैसे कुछ कहना चाहता था; पर कह न सकता था।
 
नवीन राज्य! ओहो, तुम्हारा उत्साह तो कम नहीं। भला कैसे? कोई ढंग बताओ, तो मैं भी कल्पना का आनन्द ले लूँ।
 
कल्पना का आनन्द नहीं मधूलिका, मैं तुम्हे राजरानी के सम्मान में सिंहासन पर बिठाऊँगा! तुम अपने छिने हुए खेत की चिन्ता करके भयभीत न हो।
 
एक क्षण में सरल मधूलिका के मन में प्रमाद का अन्धड़ बहने लगा-द्वन्द्व मच गया। उसने सहसा कहा-आह, मैं सचमुच आज तक तुम्हारी प्रतीक्षा करती थी, राजकुमार!
 
अरुण ढिठाई से उसके हाथों को दबाकर बोला-तो मेरा भ्रम था, तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो?
 
युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वह हाँ भी नहीं कह सकी, ना भी नहीं। अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया। कुशल मनुष्य के समान उसने अवसर को हाथ से न जाने दिया। तुरन्त बोल उठा-तुम्हारी इच्छा हो, तो प्राणों से पण लगाकर मैं तुम्हें इस कोशल-सिंहासन पर बिठा दूँ। मधूलिके! अरुण के खड्ग का आतंक देखोगी?-मधूलिका एक बार काँप उठी। वह कहना चाहती थी...नहीं; किन्तु उसके मुँह से निकला-क्या?
 
सत्य मधूलिका, कोशल-नरेश तभी से तुम्हारे लिए चिन्तित हैं। यह मैं जानता हूँ, तुम्हारी साधारण-सी प्रार्थना वह अस्वीकार न करेंगे। और मुझे यह भी विदित है कि कोशल के सेनापति अधिकांश सैनिको के साथ पहाड़ी दस्युओं का दमन करने के लिए बहुत दूर चले गये हैं।
 
मधूलिका की आँखों के आगे बिजलियाँ हँसने लगी। दारुण भावना से उसका मस्तक विकृत हो उठा। अरुण ने कहा-तुम बोलती नहीं हो?
 
जो कहोगे, वह करूँगी....मन्त्रमुग्ध-सी मधूलिका ने कहा।
 
स्वर्णमञ्च पर कोशल-नरेश अर्द्धनिद्रित अवस्था में आँखे मुकुलित किये हैं। एक चामधारिणी युवती पीछे खड़ी अपनी कलाई बड़ी कुशलता से घुमा रही है। चामर के शुभ्र आन्दोलन उस प्रकोष्ठ में धीरे-धीरे सञ्चलित हो रहे हैं। ताम्बूल-वाहिनी प्रतिमा के समान दूर खड़ी है।
प्रतिहारी ने आकर कहा-जय हो देव! एक स्त्री कुछ प्रार्थना लेकर आई है।
 
आँख खोलते हुए महाराज ने कहा-स्त्री! प्रार्थना करने आई? आने दो।
 
प्रतिहारी के साथ मधूलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज ने स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा-तुम्हें कहीं देखा है?
 
तीन बरस हुए देव! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी।
 
ओह, तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताये, आज उसका मूल्य माँगने आई हो, क्यों? अच्छा-अच्छा तुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी!
 
नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए।
 
मूर्ख! फिर क्या चाहिए?
 
उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वहीं मैं अपनी खेती करूँगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी बनाना होगा।
 
महाराज ने कहा-कृषक बालिके! वह बड़ी उबड़-खाबड़ भूमि है। तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्व रखती है।
 
तो फिर निराश लौट जाऊँ?
 
सिंहमित्र की कन्या! मैं क्या करूँ, तुम्हारी यह प्रार्थना....
 
देव! जैसी आज्ञा हो!
 
जाओ, तुम श्रमजीवियों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का आदेश करता हूँ।
 
जय हो देव!-कहकर प्रणाम करती हुई मधूलिका राजमन्दिर के बाहर आई।
 
दुर्ग के दक्षिण, भयावने नाले के तट पर, घना जंगल है, आज मनुष्यों के पद-सञ्चार से शून्यता भंग हो रही थी। अरुण के छिपे वे मनुष्य स्वतन्त्रता से इधर-उधर घूमते थे। झाड़ियों को काट कर पथ बन रहा था। नगर दूर था, फिर उधर यों ही कोई नहीं आता था। फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधूलिका का अच्छा-सा खेत बन रहा था। तब इधर की किसको चिन्ता होती?
 
एक घने कुञ्ज में अरुण और मधूलिका एक दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। सन्ध्या हो चली थी। उस निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे।
 
प्रसन्नता से अरुण की आँखे चमक उठीं। सूर्य की अन्तिम किरण झुरमुट में घुसकर मधूलिका के कपोलों से खेलने लगी। अरुण ने कहा-चार प्रहर और, विश्वास करो, प्रभात में ही इस जीर्ण-कलेवर कोशल-राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतन्त्र राष्ट्र का अधिपति बनूँगा, मधूलिके!
 
भयानक! अरुण, तुम्हारा साहस देखकर मैं चकित हो रही हूँ। केवल सौ सैनिकों से तुम...
 
रात के तीसरे प्रहर मेरी विजय-यात्रा होगी।
 
तो तुमको इस विजय पर विश्वास है?
 
अवश्य, तुम अपनी झोपड़ी में यह रात बिताओ; प्रभात से तो राज-मन्दिर ही तुम्हारा लीला-निकेतन बनेगा।
 
मधूलिका प्रसन्न थी; किन्तु अरुण के लिए उसकी कल्याण-कामना सशंक थी। वह कभी-कभी उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती। अरुण उसका समाधान कर देता। सहसा कोई संकेत पाकर उसने कहा-अच्छा, अन्धकार अधिक हो गया। अभी तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राण-पण से इस अभियान के प्रारम्भिक कार्यों को अर्द्धरात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए; तब रात्रि भर के लिए विदा! मधूलिके!
 
मधूलिका उठ खड़ी हुई। कँटीली झाड़ियों से उलझती हुई क्रम से, बढ़नेवाले अन्धकार में वह झोपड़ी की ओर चली।
 
पथ अन्धकारमय था और मधूलिका का हृदय भी निविड़-तम से घिरा था। उसका मन सहसा विचलित हो उठा, मधुरता नष्ट हो गई। जितनी सुख-कल्पना थी, वह जैसे अन्धकार में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो? फिर सहसा सोचने लगी-वह क्यों सफल हो? श्रावस्ती दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाय? मगध का चिरशत्रु! ओह, उसकी विजय! कोशल-नरेश ने क्या कहा था-'सिंहमित्र की कन्या।' सिंहमित्र, कोशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है? नहीं, नहीं, मधूलिका! मधूलिका!!' जैसे उसके पिता उस अन्धकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह चिल्ला उठी। रास्ता भूल गई।
 
रात एक पहर बीत चली, पर मधूलिका अपनी झोपड़ी तक न पहुँची। वह उधेड़बुन में विक्षिप्त-सी चली जा रही थी। उसकी आँखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अन्धकार में चित्रित होती जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा। वह बीच पथ में खड़ी हो गई। प्राय: एक सौ उल्काधारी अश्वारोही चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक था। उसके बायें हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड्ग। अत्यन्त धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ पर चल रही थी। परन्तु मधूलिका बीच पथ से हिली नहीं। प्रमुख सैनिक पास आ गया; पर मधूलिका अब भी नहीं हटी। सैनिक ने अश्व रोककर कहा-कौन? कोई उत्तर नहीं मिला। तब तक दूसरे अश्वारोही ने सड़क पर कहा-तू कौन है, स्त्री? कोशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे।
 
रमणी जैसे विकार-ग्रस्त स्वर में चिल्ला उठी-बाँध लो, मुझे बाँध लो! मेरी हत्या करो। मैंने अपराध ही ऐसा किया है।
 
सेनापति हँस पड़े, बोले-पगली है।
 
पगली नहीं, यदि वही होती, तो इतनी विचार-वेदना क्यों होती? सेनापति! मुझे बाँध लो। राजा के पास ले चलो।
 
क्या है, स्पष्ट कह!
 
श्रावस्ती का दुर्ग एक प्रहर में दस्युओं के हस्तगत हो जायेगा। दक्षिणी नाले के पार उनका आक्रमण होगा।
 
सेनापति चौंक उठे। उन्होंने आश्चर्य से पूछा-तू क्या कह रही है?
 
मैं सत्य कह रही हूँ; शीघ्रता करो।
 
सेनापति ने अस्सी सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं बीस अश्वारोहियों के साथ दुर्ग की ओर बढ़े। मधूलिका एक अश्वारोही के साथ बाँध दी गई।
 
श्रावस्ती का दुर्ग, कोशल राष्ट्र का केन्द्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रान्तों पर अधिकार जमा लिया है। अब वह केवल कई गाँवों का अधिपति है। फिर भी उसके साथ कोशल के अतीत की स्वर्ण-गाथाएँ लिपटी हैं। वही लोगों की ईष्र्या का कारण है। जब थोड़े से अश्वारोही बड़े वेग से आते हुए दुर्ग-द्वार पर रुके, तब दुर्ग के प्रहरी चौंक उठे। उल्का के आलोक में उन्होंने सेनापति को पहचाना, द्वार खुला। सेनापति घोड़े की पीठ से उतरे। उन्होंने कहा-अग्निसेन! दुर्ग में कितने सैनिक होंगे?
 
सेनापति की जय हो! दो सौ ।
 
उन्हें शीघ्र ही एकत्र करो; परन्तु बिना किसी शब्द के। सौ को लेकर तुम शीघ्र ही चुपचाप दुर्ग के दक्षिण की ओर चलो। आलोक और शब्द न हों।
 
सेनापति ने मधूलिका की ओर देखा। वह खोल दी गई। उसे अपने पीछे आने का संकेत कर सेनापति राजमन्दिर की ओर बढ़े। प्रतिहारी ने सेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। वह अपनी सुख-निद्रा के लिये प्रस्तुत हो रहे थे; किन्तु सेनापति और साथ में मधूलिका को देखते ही चञ्चल हो उठे। सेनापति ने कहा-जय हो देव! इस स्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है।
 
महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा-सिंहमित्र की कन्या! फिर यहाँ क्यों? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है? कोई बाधा? सेनापति! मैंने दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी सम्बन्ध में तुम कहना चाहते हो?
 
देव! किसी गुप्त शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने का प्रबन्ध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ में यह सन्देश दिया है।
 
राजा ने मधूलिका की ओर देखा। वह काँप उठी। घृणा और लज्जा से वह गड़ी जा रही थी। राजा ने पूछा-मधूलिका, यह सत्य है!
 
हाँ, देव!
 
राजा ने सेनापति से कहा-सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो मैं अभी आता हूँ। सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा-सिंहमित्र की कन्या! तुमने एक बार फिर कोशल का उपकार किया। यह सूचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो। पहले उन आतताईयों का प्रबन्ध कर लूँ।
 
अपने साहसिक अभियान में अरुण बन्दी हुआ और दुर्ग उल्का के आलोक में अतिरञ्जित हो गया। भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन में उल्लास था। श्रावस्ती-दुर्ग आज एक दस्यु के हाथ में जाने से बचा था। आबाल-वृद्ध-नारी आनन्द से उन्मत्त हो उठे।
 
ऊषा के आलोक में सभा-मण्डप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हूँकार करते हुए कहा-'वध करो!' राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी-'प्राण दण्ड।' मधूलिका बुलायी गई। वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई। कोशल-नरेश ने पूछा-मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, माँग। वह चुप रही।
 
राजा ने कहा-मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ। मधूलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा। उसने कहा-मुझे कुछ न चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा-नहीं, मैं तुझे अवश्य दूँगा। माँग ले।
 
तो मुझे भी प्राणदण्ड मिले। कहती हुई वह बन्दी अरुण के पास जा खड़ी हुई।
 
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